आदर्शो ने सत्ता के घर
आदर्शो ने सत्ता के घर आत्म समर्पण कर ही डाला
आदर्शो ने सत्ता के घर ,
आत्म समर्पण कर ही डाला ,
कहा सवारेगे चेहरे जब ,
दर्पण पर दागो का ताला है ,
दोष नही सत्ता का इसमें ,
उसको तो शासन करना है ,
दोषी नही प्रशासन इसमें ,
उसका तो आँचल तो झीना है ,
दोष उन्ही का नित अपना ,
रूप बदलते दांव बदलते ,
दलित कौन पद दलित कौन जब ,
खून बह रहा घाव निकलते ,
कैसे हो निरपेक्ष धर्म जब ,
वोटो का षड्यंत्र चले है ,
कूटनीति के ओलो से कब ,
लोकनीति का चमन फल है ,
सत्ता का ज्वाला पीनी तो ,
मिट स्वयं फिर पि ज्वाला ,
कहा सवारेगे चेहरे जब ,
दर्पण पर दागो का टाला ।।
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