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आज़ादी के दीवाने भूले विसरे क्रांतिकारी

आज़ादी के दीवाने भूले विसरे क्रांतिकारी


आजादी के दीवाने जिन्हें हम विस्मृत कर चुके हैं जिनके बलिदानो के परिणाम स्वरूप आज हम आजादी के हवा में साँसे ले रहें है ।ऐसे अनेको क्रांतिकारियों को जिन्हें हम जानते तक नही या हम उन्हें भूलते जा रहे है उनके कुर्बानियों के फलस्वरूप आज हम आज़ादी के फल चख रहे है । उनमे से कुछ निम्न है ।

   अलीपुर षड्यन्त्र केश

कलकत्ते में क्रांतिकारियों की एक केंद्रीय गुप्त - समिति थी ।जिसके प्रमुख्य सदस्य थे सर्वश्री वारीन्द्र कुमार घोष , उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय, उलास्कर दत्त , सत्येंद्र बोस , हेमचन्द्र दास और कन्हाईलाल दत्त । पेरिस से बम बनाना सीखकर आये हेमचन्द्र और उल्लासकर दत्त के घर रसायनशाला थी ।जिसमे वे लोग बम बनाया करते थे ।खुदीराम और प्रफुल चाकी को इसी समिति ने मुजफ्फरपुर भेजा था किंगफोर्ड को मारने के लिए ।*
       पुलिस को उस गुप्त समिति क पता चल गया था ।सी . आई. डी. वाले मानिकतल्ला में ही एक मकान किराए पर लेकर रहने लगे और क्रान्तिकारियो के गतिबिधियो पर नजर रखने लगे ।2 मई 1908 को मानिकतल्ले के बगीचे में वारीन्द्र घोष ने एक गुप्त बैठक बुलाई । बैठक जैसे ही शुरू हुई अचानक पुलिस दल द्वारा वे लोग घेर लिए गए अधिकांश पकड़े गये कुछ भाग गये ।
      जिस मकान में क्रांतिकारियों को सी.ई.डी. वाले आते जाते देखते थे उस मकान की तलाशी ली गई तो उस मकान में भारी मात्रा में बम , बन्दूक , पिस्तौल आदि बरामद हुई । अड़तीस व्यक्तियो पर अलीपुर षड्यन्त्र केस के नाम से मुकदमा चला ।यह बम केस का पहला मुकदमा था ।
       अरविंद घोस को भी इस केस में गिरफ्तार किया गया पर मुकदमे की अवधि तक जेल में रहने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया । वे वारीन्द्र कुमार घोष के बड़े भाई थे ।
        खुलाना के सिविल सर्जन डा. के. डी. घोष मेडिकल के पढ़ाई के लिए लन्दन गए थे वे अपने साथ अपनी पत्नी और सन्तान को भी साथ ले गये थे ।वे लन्दन के निकट क्राउन में रहते थे ।वही पर उनके छोटे बेटे वारीन्द्र घोष का जन्म 1880 में हुआ । डा. घोष के चार पुत्र और एक पुत्री - विनय भूषण , मनमोहन घोष , अरविंद घोष , सरोजनी और वारीन्द्र घोष थे ।
       अरविंद घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में हुआ था ।पांच वर्ष की अवस्था में उन्हें शिक्षा प्राप्ति के लिए बड़े भाई के पास दारजलिग भेज दिए गये । दो वर्ष के बाद वे अपने बड़े भाई के साथ इंग्लैण्ड चले गए ।
         प्रारंभिक दिनों में वे एक अंग्रेज परिवार के साथ रहते हुए लैटिन की अच्छी शिक्षा प्राप्त कर ली । सेंटपॉल स्कुल में छात्रवृति सहित वे कैम्ब्रिज के किंग्स कॉलेज में दाखिल हुए ।वे वहां पढ़ाई के साथ साथ कवितायेँ लिखते थे ।
    1890 में वे सिविल सर्विस परीक्षा में सफल हुए पर घुड़सवारी में असफल होगये ।कैम्ब्रिज में वे इंडियन मजलिस के वे सेक्रेटरी भी थे ।वे अपने क्रांतिकारी भाषण के कारण अधिकांशतः अधकारी वर्ग के कोप भाजन के शिकार हो जाते थे ।
     1993 में बड़ौदा के गायकवाड़ लन्दन में थे ।उनसे परिचय प्राप्त हुआ और उन्होंने श्री अरविन्द को बड़ौदा राज्य की सेवा में नियुक्त कर दिया ।वे 13 वर्षो तक बड़ौदा राज्य की सेवा में रहे ।वहा उन्होंने गुजराती और मराठी भाषा सीखी । ततपश्चात संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं की शिक्षा प्राप्त करते हुए बंगाला भी सिख ली । उसके बाद वे बड़ौदा कालेज के उप - प्रचार्य नियुक्त हुऐ ।
        1905 ई. में बंग - भंग आंदोलन प्रारंभ हुआ । श्री अरविन्द अपने को रोक न सके । बड़ौदा नरेश की नौकरी छोड़कर 1906 ई. में बंगाल नेशनल कॉलेज के प्रिंसपल बन कर वे कलकते में रहने लगे ।बड़ौदा निवास में वह गुप्त रूप से राजनितिक कार्य करते थे पर अब खुलकर मैदान में आ गए ।उनके राजनितिक जीवन के तिन दिशाये थी -
( 1 ) गुप्त संघटन बनाकर क्रांतिकारी प्रचार करना जिसका प्रधान लक्ष्य देश में सशस्त्र क्रान्ति तैयारी ।
 ( 2 ) देशव्यापी प्रचार जिसे समस्त राष्ट्र स्वतन्त्रता के आदर्श की ओर आकृष्ट हो जाये ।
 ( 3 ) जनता को संगठित कर विदेशी शासन एवं समान का वहिष्कार करना है ।
        श्री अरविन्द के दोनों बड़े भाइयों में एक विनय भूषण कूचबिहार नरेश की सेवा में और दूसरे मनमोहन घोष कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में इंग्लिश के प्रोफेसर थे ।वारीन्द्र कुमार घोष अपने भाई अरविन्द के साथ बड़ौदा में रहकर इतिहास एवं राजनीति शास्त्र का अध्ययन किया था । अपने बड़े भाई के सम्पर्क में उनका देश प्रेम बढ़ा ।वे बंगाल पहुचने पर जगह जगह घूमते हुए क्रांतिकारी युवको को संघठित करने लगे ।*
      इसी सिलसिले में वारीन्द्र घोष ने पटना में आकर एक चाय की दूकान खोली । चाय के दूकान पर क्रांतिकारियों का आना जाना शुरू हो गया ।चाय की दूकान पर सी. आई. डी. वालो को भनक लग गई । खतरा मंडराते देख वारिन्द अचानक चाय की दूकान बन्द कर अपने भाई के पास बड़ौदा चले गये ।

           श्री वारिन्द्र 2 मई 1908 को मानिकतल्ले के वगीचे में क्रांतिकारियों के साथ बैठक करते हुए पकड़े गए ।उन्हें अलीपुर के जेल में बन्द कर दिया गया । उनके अन्य साथी भी इसी जेल में बन्द थे ।उन्होंने जेल से भागने की योजना बनाई । गुप्त रूप से पिस्तौल प्राप्त कर ली ।

खुदीराम के राजनितिक गुरु सत्येन्द्र बोस एवं कन्हाईलाल दत्त को फांसी 


    खुदी राम के राजनितिक गुरु सत्येंद्र बोस मेदिनपुर से अलीपुर जेल में पहुचायें गये ।बगैर लाइसेंस के बन्दूक रखने के जुर्म में उन्हें दो साल की सजा हुई थी ।मुखबिर के कहने पर उन्हें अलीपुर षड्यन्त्र केस का भी अभियुक्त बनाया गया ।उन्होंने मुखबिर नरेंद्र को मारने की प्रण कर ली । नरेंद्र गोसाई की गवाही से अनेको क्रांतिकारियों को सजा होने की अशांका थी ।सहयोग में कन्हैलाल दत्त मिल गए ।वारीन्द्र कुमार जेल से अपने साथियों के साथ भागने की योजना बनाई थी । इसके लिए पिस्तौल एव गोली भी प्राप्त कर ली थी इसकी जानकारी सत्येंद्र बोस को लग गई । वे वारीन्द्र से पिस्तौल एवं कारतूस लेने में सफल हो गए ।और पिस्तौल प्राप्त करने का उदेश्य भी वारीन्द्र से छिपा लिए ।
     और एक दिन सत्येन्द्र ने खांसी की बहाना बनाकर जेल अस्पताल में पहुंच गये ।वहां अंगरक्षको के साथ मुखबिर नरेंद्र गोसाई पहुँचा ।सत्येन्द्र ने उसे बड़े प्रेम से बातें की ।उन्होंने उसे विश्वास दिला दिया की वह भी मुखबिर बन कर जेल कष्ट से मुक्त होना चाहते है । यह जानकर नरेंद्र खुश होकर क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए प्रतिदिन जेल अस्पताल में सत्येन्द्र बॉस से मिलने लगा ।*
   एक दिन कन्हाईलाल दत्त पेट दर्द से बेचैन हो उठे ।जेल अधिकारियों ने उन्हें भी जेल - अस्पताल भेज दिया ।
    उसी दिन एक अंग्रेज अफसर के साथ नरेंद्र वहां पहुँचा । नरेंद्र को देखते ही सत्येन्द्र ने कुरते के भीतर से पिस्तौल निकाल कर गोली मारी पर निशाना चूक गया ।नरेंद्र भागने लगा , सत्येन्द्र ने भागते नरेंद्र पर विस्तर से उठ कर गोली मारी गोली पाँव में लगा ।फिर भी नरेंद्र भागने लगा ।सतेंद्र ने उसका पीछा करने लगे।
       नरेंद्र को भागते। देख कन्हाईलाल दत्त भी हाथ में पिस्तौल ले कर उसका पीछा करने लगे ।तब तक नरेंद्र अस्पताल गेट से बाहर निकल गया । गेटमैन ने फाटक बन्द कर दिया । परन्तु कन्हाईलाल के उग्र रूप से डर कर उसने फाटक खोल दिया और इशारे से बतला दिया की नरेंद्र उधर भागा है ।
    दोनों उधर भागे और मुखबिर नरेंद्र पर नजर पड़ते ही उस पर गोलियों की बौछार कर दी ।वह वही दम तोड़ दिया । उसको सजा देने के बाद दोनों खुश हो कर झूमने लगे । उनकी गोलियां समाप्त हो गई थी दोनों वहीं पकड़े गए ।
     दोनों पर मुकदमा चला । दोनों को फांसी की सजा हुई । 20 नवम्बर 1908 को कन्हाईलाल दत्त फांसी पर लटका दिया गया । और सत्येन्द्र बसु को उसके बाद फांसी दिया गया ।
     दत्त का शव ज्यों ही जेल से बाहर निकला ' बन्देमातरम् ' का गगन भेदी नारा गुजने लगा । अर्थी सजा कर श्मशान घाट पहुचाई गयी । अर्थी के साथ अपार जनसमूह ! कलकता में यह अभूतपूर्व दृश्य था ।उतेजित भीड़ का प्रदर्शन देख कर जेल अधिकारियों ने सतेंद्र बसु का शव नही दिया ।
       बम्बई निवासी शहीद कन्हाईलाल दत्त एक सम्पन्न परिवार के सदस्य थे । बचपन से ही उनके ह्रदय में देश प्रेम अंकुरित हो गया था । बी. ए . करने के बाद वे बम्बई से कलकता आगये ।और चन्दन नगर में एक क्रांतिकारी समिति की स्थापना की । उपेन्द्रनाथ बन्दोपध्याय के साहचर्य रहने के बाद वे वारीन्द्र घोष वाली केंद्रीय विप्लव समिति के सदस्य बन गए और 2 मई 1908 के दिन मानिकतल्ले के वगीचें से गिरफ्तार हुए ।
      सत्येन्द्र बसु मेदनीपुर के वरिष्ट क्रांतिकारी नेता थे । स्वदेशी आंदोलन के समय उनके प्रेरणा से लोगो ने उस आंदोलन में जम कर भाग लिया था ।
              मुखबिर नरेंद्र गोसाई के मर जाने से प्रमाण के अभाव में अनेक क्रांतिकारी जेल से मुक्त हो गए ।फिर भी 15 अभियुक्तों को कठोर दण्ड भुगतना पड़ा ।
             वारीन्द्र घोष एवं उल्लासकर दत्त को फांसी की सजा हुई ।हाईकोर्ट में फ़ासी के विरुद्द अपील हुई । फ़ासी की सजा को आजीवन कालापानी की सजा में बदल गई ।
       उप आरक्षी अधीक्षक शमसुल आलम जो सरकार की ओर से अभियुक्तों के विरुद्द पैरबि कर रहे थे , हाईकोर्ट में ही एक युवक ने गोली मार कर हत्या कर दी । युवक रबीन्द्रनाथ गुप्ता पिस्तौल सहित पकड़ा गया ।उसे फांसी की सजा मिली ।
        सरकारी वकील आशुतोष विश्वास को किसी क्रांतिकारी ने मौत के घाट उतार दिया ।
        प्रफुल्ल चक्रवती मानिकतल्ले के वगीचे से फरार अभियुक्त थे । वे देवघर में बम परीक्षण के दौरान बम फट जाने से शहीद हो गए ।

श्री उल्लास्कर दत्त     


आजादी के दीवाने श्री उल्लासकर दत्त शिवपुर , हाबड़ा निवासी थे । बम्बई के विक्टोरिया टेक्निकल इंस्टीच्यूट में इंजनियरिग की शिक्षा प्राप्त कर स्वदेसी आंदोलन से प्रभावित हो कर वे कलकता आकर केंद्रीय विप्लव पार्टी के सदस्य बनगए ।और अपने घर में ही बम बनाने की रसायनशाला खोली और बम बनाने लगे और बम बनाने की प्रशिशक्षण देने लगे ।
 

श्री उपेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय


आज़ादी के दीवाने श्री उपेन्द्र बंदोपाध्याय को आजन्म द्विपरांतवास की सजा मिली ।वे स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित हो कर उनके मायावती आश्रम में कुछ दिनों तक उनके साथ रह चुके थे । उसके बाद वे अपने घर चन्दन नगर आकर अध्यापक बन गए । और गुप्त रूप से युवा विधार्थीयों में क्रान्तिकारी विचारो का पाठ पढ़ाने लगे ।उनके इस कार्य में सहयोग कर रहे थे उनके मित्र अध्यायपक ऋषिकेश कांजीलाल । दोनों स्वतन्त्रता - प्रेमी एक ही राह के पथिक थे ।
     श्री उपेन्द्र नाथ फ्रेंच भाषा के अच्छे जानकार थे । उस समय चंदननगर फ्रांस के अधीन था । उनका जन्म 6 जून 1879 ई. को चंदननगर में हुआ था ।प्रारम्भिक शिक्षा चंदननगर में हुई ।फ्रेंच भाषा में श्रेष्ठ घोषित हुए इसके लिए उन्हें एक स्वर्ण पदक मिला ।डफ कॉलेज में भी शिक्षा प्राप्त की ।कलकत्ता में 5 सालो तक मेडिकल कॉलेज में अध्यन किया था ।
          चन्दन नगर से अध्यापन कार्य छोड़कर पटना , बनारस , बरेली घूमते हुए वे फिर स्वामी विवेकानन्द के पास पहुचं गये । वहां से सन्यासी के रूप में पंजाब का भ्रमण करते हुये चन्दन नगर आकर पुनः अध्यापन का कार्य करने लगे ।
   1906 में वे श्री अरविन्द के सम्पर्क में आये और अरविन्द के निर्देश पर अध्यापन का कार्य छोड़ कर ' बन्देमातरम् ' के सम्पादकीय विभाग में आगये । बन्देमातरम् के बन्द होने के बाद वे ' युगांतर ' के सम्पादक बने और क्रांतिकारी विचारो का खुल कर प्रचार करने लगे ।
        अलीपुर षड्यन्त्र केस के मुकदमे में उन्होंने मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया था -" मैंने ख्याल किया कि हिन्दुस्तान के लोग बिना धार्मिक भाव के कुछ नही करेंगे ; इसलिए मैंने साधुओं से सहायता लेनी चाहि पर वे काम न आय ।उसके बाद मैंने स्कूली छात्रो में क्रांतिकारी भावो का प्रचार करने लगा ।फिर देश के भिन्न भिन्न स्थानों में गुप्त समिति का गठन एवं शस्त्र एकत्र करने का ध्यान आया ।इसके लिए मैंने वारीन्द्र , उल्लासकर दत्त और हेमचन्द्र से भेट की और उनके साथ काम करने लगा ।हमारा मुख्य उदेश्य उच्च अधिकारियों , छोटे लाट , किंग्सफोर्ड आदि को मारने का था ।"
      श्री उपेन्द्र नाथ 1897 में विवाह के बन्धन में बधे थे ।1906 ई. में उनको एक पुत्र हुआ ।*
         ' युगांतर ' के बाद ' सन्ध्या ' के सम्पादकीय में लिखा था - " हम पूर्ण स्वतन्त्रता चाहते है । देश की उन्नति उस समय तक नही होगी जब तक फिरंगियों का अंतिम निशान यहां से मिटा न दिया जाएगा ।स्वदेशी प्रचार , विदेशी वहिष्कार उस समय तक ब्यर्थ है जब तक उनके हाथो से हम अपनी पूर्ण राष्ट्रीय स्वतन्त्रता न प्राप्त कर सके ।फिरंगियों ने मेहरबानी करके हमे जो अधिकार दिया है हम उसका तिरस्कार करते है और उनपर थूकते है । हम अपनी मुक्ति का ध्येय स्वयं प्राप्त करेंगे ।"
     " युगांतर " में एक बार लिखा था - " देशी सिपाहियो की सहायता प्राप्त करो । ये सिपाही पेट के लिए विदेशी सरकार की सेवा करते है , आखिर वे भी तो खून मांस के मनुष्य है ।वे भी सोचना - समझना जानते है , उन्हें जब देश की दशा समझायी जायेगी तो वे उचित समय पर शस्त्रो सहित बहुसंख्या में क्रांतिदल में मिल जाएंगे । विदेशी शासकों से भी शस्त्रो की सहयाता ली जा सकती है ।"
     कथित उग्र विचारों के कारण ही दोनों पत्रिका पर सरकार की वक्र दृष्टि पड़ी और दोनों की प्रकाश बन्द कर दी गई ।फ़रवरी 1920 में श्री उपेन्द्र गिरफ्तार कर लिए गए उन्हें 12 वर्षो की कालापानी की सजा सुनाई गई ।
        श्री उपेन्द्र का नाम लेखको में बड़े ही आदर से लिया जाता था ।उनकी देश सेवा को नही भुलाया जा सकता ।उनके मित्र ऋषिकेश कांजिला ने मुकदमे के समय निर्भय होकर न्यायधीश के समक्ष कहा था " मै स्कुल में पढ़ाता हूँ । चन्दन नगर में श्री उपेन्द्र ने युगांतर की कई प्रतिया मुझे पढ़ाई जिन्हें पढ़कर मुझे मातृभूमि को स्वतन्त्रता करने का ध्यान आया ।मैने स्कूल में पढ़ाते समय छात्रों को बताया की अंग्रेजो ने इस देश को धोखेबाजी से और कूटनीति से गुलाम बनाया है ।इसके लिए अंग्रेजो को सजा जरूर होनी चाहिए ।" इस बयान के बाद उन्हें भी 12 बर्षो की कठोर कारावास की सजा मिला ।
       श्री अरविन्द ने अपने भाई वारिद्र घोस के साग्रह अनुरोध पर 'युगांतर ' का प्रकाशन आरम्भ किया ।युगांतर का मुख्य उदेश्य था - अंग्रेजी शासन को पूर्णतः अस्वीकार करते हुए जनता में अंग्रेजो के विरुद्द भावना को जगाना । युगांतर की नीती अरविन्द स्वयं निश्चित करते थे । भूमिगत रहकर छापेमार युद्द करने की कला के सम्बन्ध में उन्होंने धारावाहिक लेख युगांतर में छपवाया । कुछ अंको के लेख उन्होंने स्वयं लिखा था ।*
         

श्री भूपेन्द्रनाथ दत्त


         उग्र लेखो के कारण सरकार की वक्र दृष्टि पड़ी ।युगांतर के कार्यालय पर पुलुस की छापेमारी हुई । सम्पादक का नाम पत्रिका में छपता नही था ।पुलिस के अफसर पूछा की कौन है युगांतर का सम्पादक ?
   'कहिये , क्या कहना चाहते है अफसर के सामने उपस्थित हुए श्री भूपेन्द्रनाथ दत्त । भूपेन्द्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानन्द के भाई थे और युगांतर के उप सम्पादक ।पुलिस उन्हें युगांतर के कई प्रतियो के साथ गिरफ्तार कर के ले गई ।*
          उनपर मुकदमा चला ।अरविन्द के आदेशानुसार मुकदमे की पैरवी न करने की नीती अपनाई गई ।क्योंकि युगांतर विदेशी सरकार की सत्ता को स्वीकार नही करता ।उन्हें एक साल की कठोर कारावास दंड दिया गया ।*
      युगांतर के प्रति जनता की श्रद्धा बढ़ी और युवको में उतेजना , राजनितिक चेतना में बृद्दी हुई। *
           श्री अरविन्द विचलित नही हुए ।उन्होंने तिलक जी से अपना सम्पर्क स्थापित किया ।उस समय तिलक जी क्रान्तिकारीयों के एक मात्र नेता माने जाते थे ।और अहमदाबाद में कांग्रेस अधिवेसन में दोनों की मुलाकात हुई । तिलक जी उन्हें पंडाल से बाहर ले गए और लगभग एक घण्टे तक वार्तालाप किया ।सुधारवादी आंदोलन उन्हें पसन्द नही वे सम्पूर्ण आज़ादी के पक्षधर है ।
   

यतिन मुखर्जी


      बड़ौदा लौट कर अरविन्द ने बड़ौदा की सेना के एक युवक सैनिक यतिन मुखर्जी को अपना लेफ्टिनेंट बनाया और बंगाल में कार्य करने के लिए भेज दिया । उनका मुख्य उदेश्य था - क्रन्तिकारी विचारो का प्रचार करना और क्रांतिकारियों का सदस्य संख्या बढ़ाना । प्रत्येक शहर गावं में केंद्र स्थापित की जाय ।तरह तरह के सांस्कृतिक , बौधिक् कार्यक्रम के नाम पर नवयुवको की सभा समिति स्थापित की जाय ।और उन्हें विश्वास में ले कर क्रांतिकारी कार्य में लगाया जाय ।नवयुवको को घुड़सवारी , नाना प्रकार के खेलकूद , व्यायाम आदि की एसी शिक्षा दी जाय जो आगे चलकर सामरिक।महत्व के लिए उपयोगी हो ।*
  यतिन मुकर्जी निष्ठापूर्वक अपने कार्य में लग गए । देश भक्ति के रंग में रंगे मातृभूमि पर न्योछावर होने वाले युवको को मुँहमांगी मुराद मिल गई ।जान हथेली पर लेकर काम करने वालो की संख्या दिन दुनी वृद्धि हुई ।
   

श्री पुलिन बिहारी दास



       श्री पुलिन बिहारी दास ने 1905 में स्वदेशी आंदोलन के समय बिपिचनन्द्र पाल , वैरिस्टर पि. मित्र के साथ मिल कर अनुशीलन समीति की स्थापना की ।इस समीति में सदस्य बंगाल के बाहर के प्रान्तों के थे ।इसके अलावे भी बंगाल में कई अन्य छोटी छोटी गुप्त समितियां थी । श्री अरविन्द की इच्छा थी की साड़ी गुप्त समितियां एक हो जाए ।पर बंगाल विभाजन के आक्रोश ने क्रांतिकारी विचारो को दिया और व्यापक रूप से सर्वत्र फ़ैल गया ।*
               हिंसक और अहिंसक दोनों आंदोलनों में बंगाल आगे था ।उसकी एकता भंग और कमजोर करने के लिए लार्ड कर्जन ने बंगाल को विभाजन का निश्चय किया ।बंगालियों को जब कर्जन की नियत का पता चला तो वे आग बबूला हो गए ।अंग्रेजो ने लाखो विरोध के वावजूद बंगाल विभाजन का इंग्लैण्ड के भारत सचिव से स्वीकृति मिल गई ।16 अक्टूबर 1906 को बंगाल विभाजन लागू कर दिया गया ।चारो तरफ घोर बिरोध होने के कारण 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली दरबार में बंगाल को एक कर देने की घोषणा हुई और बिहार , उड़ीसा और असम अलग हो गए ।*
         अनुशीलन समीति के संस्थापक पुलिन बिहारी मणिपुर काण्ड से आग बबूला हो गए ।1857 के गदर के बाद स्पष्ट घोषणा की गई थी की अब किसी भी राजवाड़े को अंग्रेजी राज्य में नही मिलाया जाएगा । किन्तु मणिपुर की स्वतन्त्रता को छल कपट से छीन कर अंग्रेजो ने अपने राज्य में मिला लिया ।इसके पहले बड़ौदा के गायकवाड़ को अंग्रेज रेजिडेंट को मारने की साजिश रचने की झूटा आरोप लगाकर गद्दी से बे दखल कर दिया था ।पुलिन बिहारी व्यायामशाला खोलकर क्रांतिकारियों को लाठी - तलवार आदि चलाने बम बनाने की शिक्षा देने लगे ।अपनी गतिविधि से वे पुलीस के आँखों में खटकने लगे । 1908 में सी.आई.डी. वाले को किसी ने मार दिया । इस केस में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । पर प्रमाण के अभाव में उन्हें छोडना पड़ा । अनुशीलन समीति बंगाल , बिहार के साथ उत्तरप्रदेश में फ़ैल गई ।पुनः ढाका षड्यन्त्र में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया ।दो वर्षो तक विचारधीन कैदी के रूप में जेल में कैद रखा गया ।बाद में सात वर्षो की कारावास का दंड मिला । सजा भुगतने के बाद वे जैसे ही जेल से निकले पुनः उन्हें गिरफ्तार कर 1920 तक नजरबन्द कर दिया गया । जेल से छूटने के बाद पुलिन बिहारी दास कलकता आगये और भारत - सेवक - संघ के सचिव के रूप में पत्नी और सन्तान के साथ शान्ति पूर्वक जीवन यापन करने लगे । उनके कारावास के समय सरला घोषल ने अनुशीलन समिति की संचालिका के रूप संघटन कार्य को आगे बढ़या ।श्री पुलिन बिहारी दास का जन्म 28 जून 1877 को बंगाल के फरीदपुर जिला में हुआ था ।*
       

चापेकर बन्धु



1894 में अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए पूना निवासी दामोदर चापेकर एवं बालकृष्ण चापेकर ने एक संघ की स्थापना की जो आगे चलकर चापेकर संघ के नाम से प्रसिद्द हुआ ।12 जनवरी 1897 में शिवाजी उत्सव मनाया । संघ का उदेश्य था धार्मिक आवरण में क्रान्ति का प्रचार करना ।बाल गंगाधर ने 1893 में गणेश उत्सव मनाया ।और शिवाजी उत्सव में भी उनका हाथ था ।
     1897 में पुन में प्लेग की बिमारी फैली । बिमारी की रोक थॉम के लिए सरकार ने कमिश्नर मि. रैण्ड और मि. आयसर्ट के नेतृत्व में एक कमिटी बनाई ।वे लोग प्लेग से इतने भयभीत थे की जिस पर भी प्लेग का सन्देह होता उसे प्लेग के कैम्प में पहुचा दिया जाता था ।कैम्प में रोगियों के साथ कुत्ते - बिल्लियों की तरह व्यवहार होता था । लोग कैम्प के अत्यचार से घबरा उठते ।जिन्हें रोग होता वह भी छिपाने लगता । एक मुहल्ला में पता चला की की प्लेग से पीड़ित है । वहां सभी लोगो को कैम्प में जबरन पकड़ कर ठुस दिया गया ।और घरो में आग लगा दिया गया । चापेकर बन्धु ने इस जुल्म को करने वाले को मार देने के संकल्प लिया । और मि. रैण्ड और आयसर्ट को गोली मार दिया ।*
   दो व्यक्तियों ने चापेकर बन्धुओं का नाम बतला दिया ।और गवाही भी दिए जिसके कारण चापेकर बन्धु को फांसी पर लटका दिया गया ।गिरफ्तार कराने वाले को सरकार के तरफ से इनाम तो मिला पर चापेकर संघ के किसी सदस्य ने दोनों को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया ।

         श्री अरविन्द घोष


       अलीपुर षड्यन्त्र के बन्दियों को जेल में एक ही कमरे में रखा गया था पर मुखबिर नरेंद्र के हत्या के बाद सभी बंदियो को अलग अलग सेलो में बन्द कर दिया गया ।सिर्फ मुकदमे की सुनवाई के समय वे लोग एक साथ होते थे । अरविन्द की ओर से मुकदमे की पैरवी देशबन्धु चितरंजन दास कर रहे थे ।जो उस समय के प्रसिद्द वकील थे ।
        श्री अरविन्द जेल से निकलने के बाद " कर्मयोगी " एवं " धर्म " नामक साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादक बन गए ।वह बराबर समझौता नही का नारा लगाते रहे । देशवासियों के नाम खुली चिठ्ठी " कर्मयोगी " में प्रकाशित कर घोषणा कि- अधिकार प्राप्त किये वैगर कोई सहयोग नही ही सकता .....।'
       
       वे सरकार के आँखों के काँटा बन गए थे । एक रात कर्मयोगी के कार्यालय में सुचना मिली की पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिए छापा मारने वाली है ।वे अविलम्ब वहां से भाग गए । वे जहाज पर छुप कर 4 अप्रैल 1910 को पांडिचेरी पहुँच गए । वहां कुछ दिनों तक एक आश्रम में साधना में लीन रहे ।1914 तक एकांतवास में रहने के बाद 'आर्य ' नामक दर्शन संबन्धी एक मासिक पत्रिका प्रकाशित करना आरम्भ किया ।1921 तक लगातार प्रकाशित होता रहा ।
    4 दिसम्बर 1950 ई. को रात्रि में योगिराज अरविन्द घोष ने आश्रम में ही अपने शरीर को त्याग दिया ।

सामना करेंगे शक्तिशाली सितमगारों का ,
दमन का न भय , नाको चने चबवायेंगे !
स्वतन्त्रता संग्राम के हम तो सिपाही है ,
प्राण देकर , ऋण मातृभूमि का चुकायेंगे !!
       
           
     
   
   

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